Friday, May 4, 2012

'मदमस्त..'

एक मित्र की फरमाइश पर..

...


"तेरे टाइप का लिखते-लिखते..
शब्द थरथराते हैं..

हर शाम व्हिस्की के ग्लास..
मदमस्त टकराते हैं..

अड्डे पे अपने..ज़ालिम यादों के रहगुज़र..
जाने क्यूँ मंडराते हैं..

मिल कर लूटायेंगे..मनाएंगे मौज-मस्ती..
कभी टकीला..कभी जिन..

उफ़..ये दोस्ती के दीवाने..
देखो कैसे इतराते हैं..!!"


...

1 comment:

  1. क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
    मेरी नई रचना
    प्रेमविरह
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

    ReplyDelete