एक मित्र की फरमाइश पर..
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"तेरे टाइप का लिखते-लिखते..
शब्द थरथराते हैं..
हर शाम व्हिस्की के ग्लास..
मदमस्त टकराते हैं..
अड्डे पे अपने..ज़ालिम यादों के रहगुज़र..
जाने क्यूँ मंडराते हैं..
मिल कर लूटायेंगे..मनाएंगे मौज-मस्ती..
कभी टकीला..कभी जिन..
उफ़..ये दोस्ती के दीवाने..
देखो कैसे इतराते हैं..!!"
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क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
ReplyDeleteमेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ